अष्टांग योग और जैन धर्म: भाग-1

महर्षि पतं‍जलि के योग को ही कहा जाता है।

अष्टांग योग : इसी योग का सर्वाधिक प्रचलन है। अष्टांग योग अर्थात योग के आठ अंग। महर्षि पतंजल‍ि ने योग की समस्त विद्याओं को आठ अंगों में श्रेणीबद्ध कर दिया है।

यह आठ अंग हैं- (1)यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं। वर्तमान में योग के तीन ही अंग प्रचलन में हैं- आसन, प्राणायाम और ध्यान।

योग सूत्र : 200 ई.पू. रचित महर्षि पतंजलि का ‘योगसूत्र’ योग दर्शन का प्रथम व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन है।

 

योगदर्शन इन चार विस्तृत भाग, जिन्हें इस ग्रंथ में पाद (division) कहा गया है, में विभाजित है-

1. समाधिपाद,

2. साधनपाद,

3. विभूतिपाद तथा

4. कैवल्यपाद।

प्रथम भाग का मुख्य विषय चित्त (मन) की विभिन्न वृत्तियों (कार्यों) के नियमन (regulation) से समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है।

द्वितीय भाग में पाँच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार बताये गए हैं.

तृतीय भाग में अंतरंग तीन धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ऋषि के अनुसार वे समाधि के मार्ग की बाधाएँ ही हैं।

चतुर्थ कैवल्यपाद (भाग ) मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहाँ एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।

 

1). यम
मन, वचन और काया के  संयम के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय (telling lies), चोरी न करना, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ( Non collection of extra physical goods and money in addition to the pre-decided amount)  आदि पाँच आचार कहे गए हैं। 

ये ही भगवान महावीर ने बहुत पहले बताये हैं. (महर्षि पतंजलि से 300 वर्ष पहले भगवान महावीर हुवे हैं).

(2). नियम
मनुष्य को कर्तव्य परायण बनाने तथा जीवन को सुव्यवस्थित करते हेतु नियमों का विधान किया गया है।

इनके अंतर्गत शौच (शुद्धि), संतोष, तप, स्वाध्याय (meditation) तथा ईश्वर प्रणिधान (ईश्वर की शरण – जैसे सूरदास और मीरा ने ली थी) का समावेश है।

शुद्धि शरीर की भी और आत्मा की भी-दोनों कही गयी हैं.

जैन धर्म में इसे यथाशक्ति पच्चखान कहा गया है.

 

आगे पढ़ें : “अष्टांग योग और जैन धर्म : भाग-२

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