- ये आकृति किसकी याद दिलाती है?
भगवान महावीर की!
क्योंकि उनका ऐसा पूरा फोटो पहले से देखते आए हैं.
इस फोटो के देखने पर आदिनाथ, शांतिनाथ या पार्श्वनाथ की याद क्यों नहीं आई?
स्पष्ट है पूर्व में जो देखा है, स्मृति उसे ही पकड़ती है.
इस फोटो को देखने के बाद मन के भाव पवित्र होते हैं या मन के भावों पर कुछ भी असर नहीं होता?
स्वयं ही कहेंगे कि भगवान का स्मरण करने पर मन के भाव “शुद्ध” होते ही हैं.
बस यही बात “प्रतिमा” के संबंध में जानना. जैनी कोई मूर्ख नहीं थे जो सिर्फ पत्थर की मूर्तियों के पीछे अपने जीवन को समर्पित करते रहे हैं.
आगे :
इन जैनों में से किसी को दु:खी देखा या प्रसन्न ही देखा?
उन लोगों के कारण कोई दुःखी हुवे या सदियों तक लाखों लोग प्रसन्न हुवे?
प्रसन्नता किसके कारण?
पत्थर की मूर्ति के कारण या उन्हें भगवान मानने के कारण?
आज हम उन जीवित लोगों को भी तीर्थंकर जैसा भगवान क्यों मान रहे हैं जिनमें अरिहंत भगवान जैसे एक भी “गुण” नहीं हैं? ये भ्रम नहीं है? उन्हें अरिहंत जैसा भगवान मानना मिथ्यात्व नहीं है?
अन्य गुण तो छोड़ो, अरिहंत जैसी उनकी समता भी है?
कुछ प्रश्न खड़े इसलिए किए हैं कि अपनी मान्यताओं के आधार पर कोई किसी को मिथ्यात्वी कहने का आरोप न लगाएं.
कोई भी “मान्यता” एक “व्यवस्था” होती है
उसी में रहना उसका “धर्म” हो सकता है
पर वो “सार्वभौमिक सत्य” नहीं होता कि सभी उसे अपनाएं ही!
भगवान महावीर ने सार्वभौमिक सत्य की स्थापना की थी, न कि अधूरे सत्य की!
याद रहे जो सार्वभौमिक सत्य नहीं होता वो पूर्ण सत्य नहीं होता, अधूरा होता है. अब किसी को लगता है कि अधूरे सत्य से हमारा तो काम आराम से निकल रहा है तो उन्हें अपनी “मौज” में रहने देना चाहिए!
सार :
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फोटो को देखकर भगवान याद आते हैं
तो मंदिर जल, धूप, दीप, चंदन, पुष्प, नैवेद्य आदि भाव पूर्वक चढ़ाने और स्तुति आदि करने पर मन में कितनी प्रसन्नता होती है!
प्रतिमा अरिहंत के स्मरण और भक्ति का निमित्त है.
इस शुभ निमित्त को मिथ्यात्व कहेंगे?
“अपनी बुद्धि” से विचार करना,
मात्र एक बार सम्प्रदाय की मान्यताओं से बाहर आकर सोचना.
महावीर मेरा पंथ
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