पूर्व भूमिका :भाग-2
दृष्टांत : कण्डु राजर्षि :
कुलदेवी अम्बिका देवी से शत्रुंजय जाने से मोक्ष प्राप्त होगा, ये जान कर कण्डु राजा प्रसन्न हुआ और शत्रुंजय पहुँचने के पास ही एक “मुनि” के दर्शन करके और भी प्रसन्न हुआ. “बोध” पाकर “दीक्षा” ली. शत्रुंजय तलेटी आकर गिरि पर चढ़े और “आदिनाथ भगवान” के दर्शन करने पर भी पूरी तृप्ति नहीं हुई. इसलिए वहीँ पर “दुष्कर तप” करने लगे.
थोड़े समय में कर्म क्षय करके मोक्ष जाएंगे, ऐसा भगवान महावीर ने “शत्रुंजय तीर्थ” पर फ़रमाया.
“कण्डु राजर्षि” का चारित्र सुनकर सभी देवता हर्षित हुवे और “रायण वृक्ष” आकर प्रदक्षिणा दी.
फिर “समवसरण” की रचना करनी शुरू की.
(“समवसरण” सिर्फ तीर्थंकरों का ही होता है.
इसकी विशिष्ट रचना सिर्फ देव ही करते हैं).
वायुकुमार : सुगन्धित वायु से जमीन की शुद्धि की.
मेघकुमार: जल से जमीन सिंचित की.
व्यंतरदेव : पांच रंग के पुष्पों (5 coloured flowers) की बरसात की और “पद्मरागमणि” के तोरण बांधे.
भवनपति देव: चांदी के गढ़ (forts) तैयार किये. उसके ऊपर सोने के कंगूरे लगाये.
ज्योतिषदेव : चांदी के गढ़ से 500 धनुष जमीन छोड़कर सोने के गढ़ बनाये. उसके ऊपर “रत्नों” के कंगूरे लगाये.
वैमानिक देव : “रत्नों” के गढ़ बनाये. उसके ऊपर “मणि” के कंगूरे लगाये.
हर गढ़ में “रत्न” के चार दरवाजे (Gates) और उसके ऊपर “इंद्रनीलमणि” के तोरण लगाये.
(As per Jainism, Vayukumar means God of Air, Meghkumar : God of Rains, Vyantardev : Dev Residing at Land 🙁 , Bhavanpatidev : Possessing “own” House at Heaven (without paying any Taxes 🙂 ) , Jyotishdev : 9 planets (Sun, Moon.. Rahu, Ketu) Vaimanik Dev:Possessing own automatic operated Planes (without having tension of fuel 🙂 ) .
विशेष:
सारे “देव” वास्तव में सुखी नहीं होते. वहां पर भी “मित्र” और “शत्रु” रहते हैं.
उन्हें भी “इन्द्र” की “आज्ञा” में रहना पड़ता है.
किसी की “आज्ञा” में रहना किसी को भी अच्छा नहीं लगता.
(वर्तमान में “मनुष्य लोक” में हमें किसी की आज्ञा में नहीं रहना पड़ता, बस क़ानून के अनुसार काम करना होता है- इस मामले में हम “देवों ” से ज्यादा सुखी हैं).