मात्र परीक्षा के दिनों में दिन रात पढ़ने वालों को सामान्यतया डिग्री मिल जाती है.
परन्तु बड़ी डिग्री लेने के बाद भी “ज्ञान” प्राप्त नहीं होता.
इसलिए ही जिन्हें “नौकरी” चाहिए, “नौकरी नहीं लग पाती.
आश्चर्य तो इस बात के है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली के सभी विरोध करते हैं
परन्तु इसे बदलता कोई नहीं है.
लगभग यही स्थिति हमारी है.
पर्युषण के दिनों में ऐसा लगता है मानो जैनो की धर्म-परीक्षा चल रही हो!
फिर वापस वही बात.
अठ्ठाई करके धर्म के क्षेत्र में 80% मार्क्स लाने वाले एक ही हफ्ते में रात्रि भोजन करने लगते हैं.
ऐसा लगता है मानो “फर्जी डिग्री” ली हो किसी यूनिवर्सिटी से!
कहाँ पूरे आठ दिन उसने कुछ भी ना खाया हो दिन में भी (रात का तो प्रश्न ही नहीं उठता)
और वही मानो जो ना खाया हो, उसकी कमी पूर्ति रात्रि भोजन करके कर रहा हो.
कारण?
“मन” को “शिक्षा” नहीं दे पाये!
एक जैनी को पूछें कि क्या उसे रात्रि भोजन करने की छूट है?
उत्तर मिलेगा : नहीं.
वापस पूछो: तब आप ऐसे क्यों नहीं अपनाते?
उत्तर मिलेगा: रात को देरी से ही घर पहुँचता हूँ.
कारण?
काम बहुत है, इसलिए (क्या इतना भी आपको पता नहीं है कि व्यक्ति देरी से घर क्यों पहुँचता है)!
चलो, समझे कि आपकी मजबूरी है – नौकरी या धंधे के कारण.
जैन धर्म में मजबूरी से धर्म करने की बात कभी नहीं कही गयी है.
पर अट्ठाई करने के बाद भी अब आलू-प्याज-लहसुन इत्यादि फिर से क्यों खा रहे हो?
इसमें कौनसी मजबूरी है?
सारांश :
“आचरण” ऐसा हो जिसे समय के साथ पाला जा सके.
जिन व्यक्तियों को रात्रि भोजन करना पड़ता है,
यदि वो रोज भोजन “करते समय” मन में इसका पश्चात्ताप करें,
तो उन्हें भी अत्यंत “पुण्य” की प्राप्ति होती है.
कई किस्सों में तो उपवास करने वाले से भी अधिक!
(यदि भाव इतने ऊँचें हो कि रात्रि भोजन करते समय आँखों से आंसू भी आएं तो).
मन में परमात्मा से रोज प्रार्थना करें कि मुझे जैन कुल में जन्म मिला है,
तो इतनी चेतना मिले कि जहाँ-जहाँ संभव हो वहां-वहां “धर्म-आचरण” कर सकूँ.
एक बार प्रण करके देखें कि छुट्टी वाले दिन रात्रि भोजन नहीं करूँगा/करूंगी.
इतना विवेक भी रखें तो और “मन” को “शिक्षित” करें
तो एक ही साल में “मनोबल” में जबरदस्त वृद्धि होगी.