मंत्र में जब बीजाक्षर (ह्रीं, श्रीं, क्लीं, इत्यादि) का जब प्रयोग होता है तब वो “संकुचित” अवस्था में रहता है.
यही मंत्र जब विस्तार से लिखा जाता है, तो उसका ज्यादा जाप करना कठिन हो जाता है.
“नवकार” 68 अक्षर का है.
इसका लघु स्वरुप है:
नमोर्त्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्य:
जो कि 15 अक्षर का है.
और आज सभी महापूजन और आरती शुरू करने से पहले इसे बोला जाता है.
इस मंत्र को “नवकार” के स्थान पर बनाने की “धृष्टता” ( नवकार प्राकृत भाषा में है, उसे संस्कृत में रूपांतरित) करने के लिए श्री सिद्धसेन दिवाकर को संघ से निकाला गया.
बाद में उन्हीं सिद्धसेन ने “कल्याणमन्दिर स्तोत्र” की रचना करके “शिवलिंग” में से “श्री अवन्ति पार्श्वनाथ” की प्रतिमा को प्रकट किया और उन्हें संघ में वापस लिया गया.
कहने का अर्थ ये है कि मंत्र विज्ञान बहुत गूढ़ है. हर तरह से ज्ञान में समर्थ होते हुवे भी श्री सिद्धसेन दिवाकर भयंकर भूल कर बैठे परन्तु जिन शासन को एक और मंत्र मिला. यद्यपि इस मंत्र का किसी ने बहुत जाप किया हो, ऐसा कभी जानने में नहीं आया.
ऐसा क्यों?
जिस मंत्र बनाने के कारण उन्हें संघ से निकाला गया, उसका “प्रभाव” कैसा मानेंगे?
उत्तर है: बहुत बुरा!
परन्तु यदि ये ना बनाया होता, तो क्या कल्याणमन्दिर स्तोत्र बनाने का प्रसंग बनता?
उत्तर है : नहीं!
तब इस प्रसंग को अच्छा मानें या ख़राब?
अब उत्तर देना बहुत मुश्किल है.
जैन धर्म पर आज तक जितनी बार भी कोई “आपदा” आई है,
तो जिस प्रकार “तपने” के बाद सोने में चमक और ज्यादा आती है,
वैसा हुआ है.
कुछ लोग अपनी मर्जी से कुछ बीजाक्षर जोड़ कर “मंत्र” लिखने की चेष्टा करते हैं,
ये बहुत नुकसानदायी होता है, कृपया सावधान रहें.
मूल मंत्र में छेड़खानी करना “मधुमखी” के छत्ते को छेड़ने के बराबर है.
इसलिए मात्र और मात्र जिसने मंत्र साधना की है, उसी के “मंत्र” पर भरोसा रखें.
जो गुरु साधना किये बिना अपने भक्तों को मंत्र देते हैं,
वो “निष्फल” होते हैं.
इसका प्रायश्चित गुरु को भी आता है.
सीधी बात है : जिस वस्तु पर मेरा अधिकार ही ना हो, वो मैं दूसरे को कैसे दे सकता हूँ?