शांतनु “भील कन्या” के प्रेम में “अंधे” बने.
ध्रतराष्ट्र “अँधा” होकर भी राजा बना.
गांधारी “अंधी” नहीं थी, फिर भी जीवन भर “अंधी” जैसी रही.
दुर्योधन “सत्ता” के “नशे” में “अँधा” था.
“शकुनि” “अंधों” के लिए “चाल” चलता था.
पाण्डु शापित होते हुवे भी “भोग” के लिए
“अँधा” बना और अपना “जीवन” खोया.
युधिष्ठिर जुअा खेलने के लिए “अँधा” था.
भीष्मपितामह के लिए “इच्छा–मृत्यु” “वरदान” नहीं था, शाप था.
इच्छित तरीके से “जीने” का वरदान नहीं मिला था.
पितामह की उपस्थिति में ही “द्रौपदी” का “चीर–हरण” हुआ.
द्रौपदी ने पति चुना “एक” और झेलने पड़े “पांच.”
द्रौपदी को अपने पांचो पुत्रों की “हत्या” देखनी पड़ी.
गुरु द्रोण को अपने सबसे प्रिय शिष्य के सामने लड़ना पड़ा.
द्रोण का वध “मायावी झूठ” के कारण हुआ.
भीम ने “दुर्योधन” का खून पिया.
द्रौपदी ने उस खून से अपने बालों को रंगा.
युद्ध में एक तरफ “अपने” थे और दूसरी तरफ भी “अपने” ही थे.
अर्जुन को युद्ध के लिए “उकसाना” पड़ा.
कर्म सत्ता बड़ी विचित्र है.
जो अभी अच्छा दिख रहा है, उसका परिणाम अच्छा ही हो, जरूरी नहीं है.
और जो अभी ख़राब दिख रहा है, उसका परिणाम ख़राब ही हो, जरूरी नहीं है.
हज़ारों युद्ध लड़ने के बाद भी पांचों पांडव मोक्ष गए.
कारण ?
उन्हें “युद्ध” लड़ना “पड़ा” था,
उनकी इच्छा कभी नहीं थी कि वो युद्ध लड़ें.
जैन धर्म के अनुसार वो अपने अंतिम समय में दीक्षा लेकर
शत्रुंजय तीर्थ पर अनशन करके मोक्ष गए.
व्यक्ति चाहे तो स्वयं को कभी भी बदल सकता है.
परन्तु विडम्बना ये है कि हममें से ज्यादातर अपने को बदलना ही नहीं चाहते.
Check Point:
स्वयं की ऊपर लिखे “अवतारों” से तुलना करें.
और देखें कि कहीं हमारी स्थिति उनमें से एक तो नहीं है?