“स्वादिष्ट खीर”
को ग्रहण करने,
खाने और
पचाने में जितना फर्क है
उतना ही फर्क
“नवकार मंत्र”
ग्रहण करने,
जपने और
उसके सिद्ध होने में हैं.
जिसने अभी तक नवकार “ग्रहण” ही ना किया हो,
(सिर्फ नवकार “आना” मतलब ऐसा है जिसे “खीर” बनाने की विधि आती हो)
उसका जपना ऐसा है जैसे वो “मुँह” में खीर हुवे बिना ही उसका स्वाद ले रहा हो.
जब खीर “कुछ” खायी ही नहीं,
तो “पचाने” का तो प्रश्न ही नहीं उठता.