“मन” और “वचन” की
जितनी “महत्ता” है
उतनी “काया” (शरीर) की नहीं.
यदि होती,
तो वेश्याएं “पूजी” जातीं.
(“खोपड़ी” हिला देने वाली बात है).
“सुन्दर पुरुष और स्त्रियां”
अपने “शरीर” का गर्व ना करें.
(गर्व करे तो अपने श्रेष्ठ जैन कुल पर करे).
शरीर की “सुंदरता” ने कइयों को भ्रष्ट किया है
– सूर्पनखा और रावण – दोनों भाई-बहिन इसके “शिकार” हुवे हैं.
यदि सूर्पनखा “भ्रष्ट” ना हुई होती,
तो रावण भी “भ्रष्ट” ना हुआ होता.
मतलब ये एक “चेन” है
जो कइयों को भ्रष्ट करती है.
जिस सुंदरता के कारण कोई “भ्रष्ट” होता हो,
उसकी क्या महत्ता है !
भगवान् महावीर के व्याख्यानों में भी
ऐसी बातों का वर्णन है.
और स्थूलिभद्र को कौन नहीं जानता !
सार :
मन और वचन को लगाम में लिए बिना
“शरीर” कोई “उत्कृष्ट” कार्य कर ही नहीं सकता !
प्रश्न :
हमारे “शरीर” की “सुंदरता” के कारण किसी के मन में विकार आता हो,
और इस कारण कोई भ्रष्ट होता हो, तो हमें कैसा लगना चाहिए?