कुछ जैन सम्प्रदाय ऐसा मानते हैं कि
“सम्यक्त्व” पूर्व भव् की स्मृति से ही आता है.
ये बात शत प्रतिशत गलत है.
भगवान महावीर के “सम्यक्त्व” का पहला भव एक चरवाहे “नयसार” का था.
एक साधू को गोचरी वोहरायी, उससे “सम्यक्त्व” पाया,
उस समय उन्हें पूर्व भव की कोई स्मृति नहीं हुई थी.
“मंत्र विज्ञान” पूर्व जन्म की स्मृति ला सकता है.
परन्तु इसके लिए “गहरे ध्यान” में जाकर उल्टा चलना होता है.
( जब हमें स्वप्न आता है तो सो कर जागने पर
हमने स्वप्न जो देखा, वो उलटे क्रम में याद आता है.
यानि जो सबसे बाद में देखा, वो पहले याद आता है ).
हम तो पहले ही इतने “उलटे” चल चुके हैं.
कि अब कौन और उल्टा चलना चाहेगा? 🙂
यदि पूर्व जन्म की स्मृति आ भी जाए तो वो वैसा ही होगा,
जैसे कोई व्यक्ति समय के साथ
डूबे हुए रुपयों को भूल चूका हो
और आज उसे वापस याद दिलाने वाला कोई आ गया हो.
(पिछले जन्म में जो रुपये कमाए थे,
उन पर आप आपका हक़ कायम रख सकोगे)?
खोये हुवे रूपये वापस याद दिलाने वाला कोई मिले,
तो दु:ख ही मिलेगा, खोया हुआ पैसा नहीं.
तीर्थंकर और उनकी पाट परंपरा को चलाने वाले
आचार्य, उपाध्याय और साधू बार बार ये कहते हैं
की ८४,००,००० जीव योनिओं में “भटकने” के बाद
ये मानव भव मिला है.
हमारी स्थिति ये है कि हम सब जगह “घूम” आये,
पर कोई पूछे कि क्या देखा?
तो जवाब होता है:
अभी तो बहुत थक गए हैं.
बाद में बताएँगे.
अभी “रेस्ट” करना है.
क्या ये मनुष्य भव भी “रेस्ट” करने के लिए है?
वापस आओ, मूल बात पर!
बात शुरू हुई थी, हम सब जगह “घूम” आये पूर्व जन्मों में,
और
आज “याद” क्या रहा,
आज “प्राप्त” क्या रहा?
कुछ नहीं!
सिर्फ ये “रोकड़ा” (कॅश)
“मानव भव” ही हमारे पास है,
बाकी सारा डूबत “(बेड डेबट्स)” है.
इस मानव भव का उपयोग कैसे करना है
जानने के लिए पढ़ते रहें:
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( कृपया हर पोस्ट को तब तक पढ़ें
जब तक आप उसके तत्त्व की गहराई को ना छू लें)