“सरस्वती” स्पेशल (भाग – 1)

1. नवकार मन्त्र का महत्त्व सर्वस्वीकार्य है । प्रमुख कारण यह भी कि  इसमें व्यक्ति विशेष के बजाये पदों को नमस्कार किया गया है । उसी प्रकार “णमो णाणस्स” पद की साधना के बजाये “सरस्वती देवी” को आराध्य बनाना उचित है ?
A: ये प्रश्न ऐसा ही है जैसे कि कोई पूछे आपको गुरु प्रिय है या उनका ज्ञान? यदि कहे जाने वाले गुरु में ज्ञान नहीं है तो वो वास्तव में गुरु ही नहीं है और जिसमें ज्ञान है और देता भी हो, वही गुरु है.
जिसे वीणा प्रिय है तो उससे निकलने वाले स्वर भी प्रिय होते हैं. यदि उससे स्वर ही ना निकलें, तो वही वीणा फिर प्रिय नहीं होती.
जो सरस्वती को पूजता है, वो ज्ञान को स्वत: ही पूजता है और जो ज्ञान को पूजता है वो सरस्वती को स्वत: ही पूजता है.
चूँकि सरस्वती ज्ञान देती है और जैनों की सारी धार्मिक क्रियाएँ सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही होती है, इसलिए ज्ञान ही सर्वोपरि है.
ज्ञान प्राप्त होने पर गुरु के पास ही बैठे रहने का कोई प्रयोजन नहीं है. क्योंकि ज्ञान प्राप्त होने पर गुरु स्वयं उसे धर्म का प्रचार करने के लिए दूसरे स्थानों पर भेजता है.  वर्तमान में ये परंपरा कमजोर होती जा रही है इसलिए सभी जगह जिन धर्म का फैलाव नहीं हो पा रहा.

 

2. देव देवियों में प्रायः अवधि ज्ञान होता है । देवी सरस्वती का ज्ञान किस रूप में विशिष्ट है ? क्या उन्हें पूर्ण ज्ञान है ? यदि है , तो फिर केवलज्ञान किसे कहते हैं ?
A: ये प्रश्न बड़ा महत्तवपूर्ण है और प्रश्न में ही उत्तर भी समय हुआ है. पाठक स्वयं प्रश्न को दुबारा गौर से पढ़ें.
देवी सरस्वती “श्रुत ज्ञान” की देवी है. 1. मति ज्ञान, 2. श्रुत ज्ञान और 3. अवधि ज्ञान. यदयपि देव/देवी हमारे मन के भाव पढ़ पाते हैं जब हम मन से उनकी पूजा अर्चना करते हैं. फिर भी देव गति में जीव सुख का अनुभव ज्यादा करता है. हाँ, कुतूहल वश कई बार साधक के पास उसकी साधना से आकर्षित होकर जरूर आते हैं और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आशीर्वाद दे कर चले जाते हैं.
सरस्वती चूँकि ज्ञान की देवी है और एक जैन धर्म की आराधना ज्ञान प्राप्ति के लिए ही करता है इसलिए इस दृष्टि से सरस्वती विशिष्ट है.
जैन शास्त्र कहते हैं कि श्रुत केवली और केवली के “ज्ञान” में  कोई अंतर नहीं होता. श्रुत केवली को “जानने” के लिए ज्ञान का उपयोग करना होता है जबकि केवली को सब कुछ आर-पार दीखता है.
निष्कर्ष: सरस्वती केवलज्ञानी नहीं है. फिर भी उसे सब बातों का ज्ञान होता है जब वह अपने ज्ञान का उपयोग करती है.

 

3. सम्यक्त्व व्रत सम्बन्धी आचार्य कीर्तियश सूरि जी आदि की पुस्तकों में पढ़ा कि केवल सुदेव ही आराध्य है. जिनके हाथ में माला है , पुस्तक है – यानि उन्हें पूर्ण ज्ञान नही है । अतः ऐसों को भगवान् या भगवती कहना उचित नही । यह किस प्रकार समझा जाए ?
A: प्रतिप्रश्न: अभी के गुरुओं को भी पूर्ण ज्ञान कहाँ है? तो क्या उन्हें गुरु भगवंत ना कहा जाए? उनके हाथ में भी तो माला और पुस्तक रहती है.

(ऐसा लिखकर jainmantras.com किसी का भी निरादर करने का उद्देश्य नहीं रखता – कृपया उत्तर इसी प्रश्न तक ही सीमित रखें).

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