उन्नति किसकी? गुरु की या शिष्य की?

“गुरु” शिष्य की उन्नति चाहता है.

“प्रकट” में भले शिष्य के लिए “प्रायश्चित्त” की बात करे परंतु “दंड” देने की “इच्छा” कभी नहीं रखता.

हर जैन संघ में गुरु की आज्ञा सर्वोपरि होती है,
कोई नयी बात नहीं है.
अलग से बताने की भी जरूरत नहीं है.

किसी भी जैन संघ में गुरु की अवहेलना करने की बात नहीं है.

क्योंकि “शिष्य” जो करना चाहे, उसे गुरु तभी मना करता है जब उसमें “शिष्य’ का हित नहीं हो.

(गूढ़ बात : “शिष्य” के हित में “संघ” का हित “सर्वोपरि” है और “संघ” के हित में “शिष्य” का हित सर्वोपरि है -ये कहने की जरूरत नहीं है).

“दीक्षा” लेते समय “शिष्य” को पता होता है कि
उसे गुरु की आज्ञा में रहना है.

परंतु आज ऐसा लग रहा है कि “शिष्य” अपनी “उन्नति” चाहते हैं.
“आत्म-साधना” भी करना चाहते हैं परंतु कैसे करें, यही कोई “सरल” तरीके से बताता नहीं है.
कुछ ही दिनों में “क्रिया” कर कर के उसे “कंटाला” आने लगता है.

जिस गुरु के “सान्निध्य” में “दीक्षा” ली थी,
उसे ही शिष्य की तरफ “देखने” का समय भी नहीं होता विशेषकर जहाँ बहुत से “शिष्य” एक साथ हों.

कारण:

“संघ” में “आत्म-साधना” की उतनी बातें नहीं हो रही
जिसके लिए “दीक्षा” ली थी.

इसीलिए आजकल “गुरु” छोड़ दिए जा रहे हैं.
ऐसा सभी जैन संघों में हो रहा है.

आज से नहीं, पिछले कई वर्षों से !

कारण?
“शिष्य” को दीक्षा लेते समय “इतना पता” ही नहीं होता कि दीक्षा लेने से “जीवन” वास्तव में कितना समृद्ध हो सकेगा. “अंदर की हकीकत” का एहसास तो उसे एक-दो साल बाद होता है.

जगतसम्राट श्री शांतिगुरुदेव ने भी अपने गुरु को छोड़ा था क्योंकि उन्हें नहीं लगा कि मेरी इस गुरु के सान्निध्य में कोई “आत्म-उन्नति” होगी.

आज वो हर “सम्प्रदाय” के लिए “पूजनीय” हैं.

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