मृत्यु के बाद सभी अपनी अपनी संपत्ति का बंटवारा अपनी इच्छा से करना चाहते हैं.
खून पसीने से कमाए हुवे धन को भला ऐसे ही कैसे छोड़ा जा सकता है.
परन्तु प्रश्न ये है की “ऊपर” जाने से पहले “नीचे” की सोचनी चाहिए या ऊपर की?
“नीचे” का तो अनुभव है ही,
आजकल “वैराग्य” की बातें हर व्यक्ति करता है.
जमाना ख़राब है (यानि संसार असार है).
कोई किसी का नहीं है (एकत्व भावना), इत्यादि.
ये अनुभव तो चालीस की उम्र में ही हो जाते हैं. 🙂
मतलब कुछ तो “असर” पड़ता है, संतों की वाणी का.
पर “कुछ” ही पड़ता है, पूरा नहीं पड़ता.
क्योंकि “जीवन” क्या है, वो पूरा समझा नहीं.
अंतिम समय में भी प्रॉपर्टी से व्यक्ति का मोह छूटता नहीं है,
जबकि प्रकृति एक सेकंड भी नहीं लगाती, ये सब छुड़वाने में. 🙁
याद करें, स्कूल गए थे तब सबसे पहले क्या किया जाता था.
“स्कूल में घुसते ही “प्रार्थना” की जाती थी”
पंद्रह साल तक स्कूल में प्रार्थना करने की आदत डाली गयी
परन्तु उसका असर हमारे पर कुछ भी नहीं हुआ.
“अनुशासन” (“discipline) की आदत डाली गयी,
उसका असर भी हमारे पर कुछ भी नहीं हुआ
और हम शिकायत करते हैं कि शिक्षा प्रणाली को बदलने की जरूरत है.
अरे! बंटवारा करना है तो गुणों का करो!
ईमानदारी, मेहनत, शुद्ध चरित्र, अहिंसा, प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति, इत्यादि का करो!
सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो ये है कि
ईमानदारी, मेहनत, शुद्ध चरित्र, अहिंसा, प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति इत्यादि
का जितना अधिक बंटवारा करेंगे उतना बढ़ेगा.
जबकि प्रॉपर्टी का जितना अधिक बंटवारा करोगे तो उतना हरेक को कम मिलेगा.
अब विचार करो कि कौनसा काम किया जाए?