लोगों को “तंत्र-मंत्र” की बातें वाहियात लगती हैं.
सही भी है, जब तक किसी बात का प्रत्यक्ष अनुभव ना हो,
तब तक “अलौकिक” बातें मानने में नहीं आती.
श्री अरविन्द घोष के एक विद्यार्थी रहे हैं :
श्री कन्हैयालाल मुंशी !
स्वतंत्र भारत आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थे.
पेशे से थे वकील.
एक वकील को “बुद्धि” की बातें ही समझ में आती हैं.
बात सन १९१८-२१ के बीच की है.
एक बार नाथ सम्प्रदाय का एक कनकटा “साधू”
शाम को उनके द्वार पर आकर खड़ा हुआ.
उसने उनसे १० रुपये मांगे.
बार बार “दुत्कारने” पर भी वो वहां से हटा नहीं.
और कहा : “वकील साहब,”
आप पर “प्रभु” की बड़ी कृपा है.
फिर कुछ मंत्र पढ़ने लगा.
फिर उसने कहा : आप अपनी हथेली को देखो.
इच्छा ना होने पर भी उन्होंने अपनी हथेली को देखा.
लिखा हुआ मिला : “श्रीराम”
आठ फुट की दूरी होने पर भी वकील साहब को शंका हुई
कि कहीं उसने सम्मोहन का प्रयोग तो नहीं किया?
(जैसा कि जादूगर करते हैं).
इसीलिए हथेली को साबुन से रगड़ कर धोया.
फिर भी “श्रीराम” शब्द नहीं हटा.
साधू को रुपये २५ दिए और
उनका आशीर्वाद प्राप्त किया.
उसके बाद तो उन्होंने अनेक साधुओं का आशीर्वाद प्राप्त किया.
और बढ़ती उम्र में “पार्किंसन” से भी छुटकारा हुआ.
“आशीर्वाद” के फलस्वरूप वकालात करने के बाद
वो बने साहित्यकार.
इंडियन फ्लैग समिति और इंडियन कोंस्टीटयुसन ऑफ़ इंडिया के सदस्य रहे
कुलपति भी बने और
बाद में बने राजनीतिज्ञ-उत्तर प्रदेश के गवर्नर!
क्या अब भी “मन्त्रज्ञ” साधुओं के “आशीर्वाद” पर
“पढ़े-लिखे” डिग्रीधारी लोगों को शंका है?