पिछली पोस्ट्स में बिज़नेस लॉस रोकने के लिए नवकार महामंत्र, उवसग्गहरं और नमुत्थुणं सूत्र का उल्लेख किया है.
जैन धर्म के गणधरों, आचार्यों, उपाध्यायों इत्यादि ने हज़ारों जैन मन्त्रों की रचना की है.
“नवकार” एक ही बहुत है – सभी समस्याओं के निवारण करने के लिए और कर्म खपाने के लिए.
प्रश्न ये उठता है कि फिर आचार्यों ने “भक्तामर-स्तोत्र”, कल्याण-मंदिर स्तोत्र, ऋषिमण्डल स्तोत्र, श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ स्तोत्र, इत्यादि की रचना क्यों की?
इसके कारण है :
१. हर व्यक्ति का “स्वभाव” अलग होता है.
ग्रहों का स्वभाव भी अलग अलग होता है और जिसकी जन्म कुंडली में जो ग्रह प्रभावशाली होता है, उसे उसका उपयोग जरूर करना चाहिए पर ज्योतिष के पीछे हाथ धोकर पड़े नहीं रहना चाहिए क्योंकि जन्म कुंडली में थोड़ी भी भूल हो तो समय/परिस्थिति की भविष्यवाणी करने में चूक हो सकती है.
२. हर समय “परिस्थिति” एक सी नहीं होती – शरीर का बल (energy) एक दिन के बुखार से ही एक बार तो टूट ही जाता है.
३. हर समय “पुण्य” बलवान नहीं होता – इसे जाग्रत रखने के लिए भी रोज मंत्र जाप की आवश्यकता होती है.
४. हर समय “मन” के भाव एक से नहीं रहते – इसलिए “मन” को “आकर्षित” रखने के लिए भी अलग अलग मन्त्रों की रचना की गयी.
५. “सामायिक” और “प्रतिक्रमण” सूत्रों में भी मन्त्रों की भरमार है. पर “ज्ञान” न होने के कारण (सही कहें तो “रूचि” ना होने के कारण) हम उन सूत्रों को “हाई-स्पीड” पर पढ़ते हैं.
वास्तव में तो “सामायिक” में मात्र आत्मा का चिंतन ही होना चाहिए.
परन्तु आचार्यों ने जब देखा की “सामान्य” श्रावकों को तो छोडो, “विशिष्ट” कहे जाने वाले श्रावक भी “काउसग्ग” नहीं कर पाते जो काउसग्ग ज्यादातर मात्र 1 मिनट से लेकर 5 मिनट का होता है. इसलिए “सामायिक ” में भी “स्वाध्याय” के नाम पर कई सूत्रों को जोड़ा गया.
“स्वाध्याय” का अर्थ है : “स्व” का “अध्याय” यानि आत्म चिंतन.
परन्तु यहाँ भी हम सूत्रों को इस प्रकार पढ़ते हैं मानो कोई “स्पीड रीडिंग कम्पटीशन” में भाग ले रहे हों.
आगे पढ़ें:जैन मन्त्रों की सहायता से बिज़नेस लॉस रोकें-4