shrut gyan

“मतिज्ञान” (बुद्धि) का “उपयोग” तब है जब उसे नित्य नया सीखने में लगाया जाए जिसे “श्रुत ज्ञान” कहते हैं

अधिकतर लोग “मतिज्ञान” तक ही सीमित होते हैं
शास्त्र का “उपयोग” क्या है,
उसे स्वीकार नहीं करते,
क्योंकि वहां तक “पहुँचते” ही नहीं ।

इसका अर्थ ये हुआ कि सब कार्य “बुद्धि’ के अनुसार
ही करना चाहते हैं, क्योंकि उनका “विवेक” जाग्रत हुवा ही नहीं !

(धंधे में बड़ा नुक्सान तब होता है जब खूब बुद्धि लगाकर बड़ा
धंधा किया हो – स्पष्ट है सिर्फ बुद्धि के अनुसार किये गए
सभी कार्य सफल नहीं होते)।

 

“मतिज्ञान” (बुद्धि) का “उपयोग” तब है
जब उसे नित्य नया सीखने में लगाया जाए
जिसे “श्रुत ज्ञान” कहते हैं ।

 

“विवेक” तब आता है
जब उसी ज्ञान का उपयोग करना आ जाए !

उदाहरण:

शास्त्र कहते हैं कि “अहिंसा” परम धर्म है।
सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों की भी हिंसा नहीं करनी !

(हो ही जाए, जहाँ हमारा बस न चले तो बात अलग है
हो जाने और चला कर करने में बहुत बड़ा अंतर है)।

और भी विशेष:

कार्य करते समय “हिंसा” का भाव है क्या?
– ये चेक करना है !

अब यहाँ अधिकतर लोग या तो अपनी बुद्धि इतनी लगाते हैं
कि करने योग्य कार्य भी नहीं करते : हिंसा का नाम लेकर !

जबकि जहाँ वश न चलता है, हिंसा हो रही हो,
तब क्या रुक जाते हैं?

उत्तर है : नहीं !

साधुओं द्वारा “विहार” करने पर भी जीवों की हिंसा होती है
फिर भी ये “धर्म” का आचरण है !

यहाँ प्रश्न है :

साधुओं को तो विहार करना ही है,
उस समय श्रावकों का उनके साथ चलना कहाँ जरूरी है?
यदि इसमें सिर्फ “हिंसा” को देखा जाए
तो वो साधुओं के साथ न चलकर इससे बचा जा ही सकता है !

पर नहीं, क्योंकि “विहार” शास्त्रसम्मत है :
इससे स्थान विशेष का राग नहीं रहता,
व्यक्ति विशेष से राग नहीं रहता।

गुणों की रक्षा करना महत्वपूर्ण है, सिर्फ क्रिया नहीं ।

“विहार” को “अहिंसा यात्रा” तक कहा जाने लगा है !
क्योंकि कार्य करने का उद्देश्य महत्वपूर्ण है न कि सिर्फ क्रिया !

साधुमार्गियों को ये बात जिन मंदिर और जिन पूजा के सन्दर्भ में भी
अच्छी तरह जान लेने की जरूरत है।

जान बूझ कर न जाने, तो बात अलग है
क्योंकि बुद्धि का इस्तेमाल अपनी अपनी सोच और मान्यता के अनुसार
किया गया है, शास्त्र सम्मत बातों को किनारे रख कर !

यदि इस बात पर गौर किया जाए,
तो सम्प्रदायवाद नष्ट होकर जैनों में एकता आज ही आ जाए !

  • महावीर मेरापन्थ
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