सर्वप्रथम युगादिदेव श्री आदिनाथ भगवान और चरम तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी को कोटिश: प्रणाम करता हूँ.
माँ सरस्वती को साक्षी रखकर और उन्हीं की कृपा से कुछ विशेष बातें एकदम सरल भाषा में लिख रहा हूँ.
जब जब “माँ” सरस्वती को याद किया है, उसकी ओर से रोज कुछ “नया” प्राप्त होता रहा है.
(ये सभी को हो सकता है, बस सम्पूर्ण समर्पित होने की जरूरत है).
आज “ध्यान” के बारे में कुछ कहना है.
कइयों को ये “भ्रम” होता है कि वो ध्यान नहीं कर पाते.
उनकी “शिकायत” होती है कि जब भी “ध्यान” करने बैठते हैं तो दूसरे अनेक विचार आने लगते हैं.
जरा “ध्यान” करें कि ये “शिकायत”वो किससे करते हैं?
नियम से “दोषी” व्यक्ति के विरुद्ध शिकायत की जाती हैं.
यहाँ पर दोषी कौन हैं – जरा “विचार,चिंतन या ध्यान” करें.
वास्तव में तो दिन भर हर व्यक्ति कभी ना कभी ध्यान करता ही है-साधारणतया इसे विचार या चिंतन कहते हैं.
बहुत से विचार दिन भर आते हैं – अपने आप. बिना चेष्टा किये!
और नष्ट भी हो जाते हैं.
परन्तु कुछ “विचार” “सोचने” पर मजबूर करते हैं.
कभी कभी ये “विचार” बहुत लम्बे समय के लिए चलता है
जो “ध्यान” के बहुत पास ले जाता है.
जैन धर्म में ध्यान के चार प्रकार बताये गए हैं:
१. आर्त्त ध्यान
दुःख के समय मन बहुत आहत होता है. मन को बार बार कोई विषय चोट पहुंचाता है.
इन्हीं विचारों में घिरे रहने को सरल भाषा में आर्त्त ध्यान कहते हैं.
२. रौद्र ध्यान
इच्छित वस्तु या घटना के ना होने पर गुस्सा आता है.
उसी गुस्से को बार बार मन में लाना रौद्र ध्यान है.
(ये दो प्रकार के ध्यान कम-ज्यादा सभी करते हैं).
अब आते हैं:
३. “धर्म ध्यान” पर.
“धार्मिक ग्रन्थ पढ़ना, उन पर चिंतन करना : ये धर्म ध्यान है.
मात्र पढ़ने को “ध्यान” नहीं कहते. उस पर चिंतन करना – धर्म ध्यान के पास ले आता है.
परन्तु बात यहीं तक पूरी नहीं होती.
“धर्म ध्यान” में “मति ज्ञान” और “श्रुत ज्ञान” दोनों का उपयोग होता है.
उत्कृष्ट ध्यान “आत्मा” को सीधा “अवधि ज्ञान” के पास ले जाता है.
इस प्रकार के ध्यान में मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों का ही प्रयोग नहीं होता.
आगे पढ़ें: ध्यान और “अवधि ज्ञान”-2