जिनसे भी मेरा संपर्क रहता है, वो मेरे अपने हैं.
जो “अपने” हैं, उनसे मेरा प्रेम है या नहीं
ये मेरे “अपनेपन” की कसौटी है.
यदि “भगवान” से भी मेरा सम्बन्ध “स्वार्थ” का है.
तो मेरे “अपने” कैसे हुवे?
“मंत्र–विज्ञान” पापों को धोने की बात करता है.
हम तो “मंत्र-विज्ञान” से पहले से भी अधिक पाप करने की सोचते हैं
क्योंकि उससे हम “वो और” प्राप्त करना चाहते हैं
जिससे हम पहले से ही दुखी हैं.
पहले व्यक्ति धन कमाना चाहता है.
फिर शादी करना चाहता है.
फिर संतान की चाह होती है.
फिर धंधे में और प्रगति की चाह होती है.
फिर नाम की चाह होती है.
फिर इज्जत की चाह होती है.
प्रश्न है:
क्या हम दूसरों को उतनी इज्जत देना चाहते हैं जितनी खुद की “चाहते” हैं?
क्या हम दूसरों का “नाम” होने से खुश हैं?
क्या दूसरे की धंधे की प्रगति से हम खुश हैं?
क्या हम अपनी ही संतान से खुश हैं?
क्या हम अपने/अपनी जीवनसाथी से खुश हैं?
और
अंतिम प्रश्न: क्या हम अपने “आप” से खुश हैं?
उत्तर:
यदि हम अपने आप से ही खुश नहीं हैं
तो हमें खुश करने के लिए
दूसरा “आसमान” से उतर कर आने वाला नहीं है.
विशेष:
पोस्ट में बहुत ही गूढ़ बात कही गयी है.
मात्र पढ़ने से उसे “पकड़” नहीं सकेंगे.
जानने के लिए खुद ही चिंतन करना होगा.
(संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य
व्यक्ति “खुद” ही है.
जो बहुत कुछ जानते हुवे
“खुद” को ही नहीं समझ पाता).