“प्रधानम् सर्व धर्माणाम्
जैनम् जयति शासनम्”
कभी विचार किया है
कि कौनसी ऐसी बात है
जिसके कारण जैन धर्म
सब धर्मों में प्रधान है.
ब्रह्मा नहीं कहते कि तुम भी ब्रह्मा बन सकते हो
शिव नहीं कहते कि तुम भी शिव बन सकते हो
विष्णु नहीं कहते कि तुम विष्णु भी बन सकते हो
इशू नहीं कहते कि तुम इशू बन सकते हो
बुद्ध नहीं कहते कि तुम भी बुद्ध बन सकते हो
सिर्फ और सिर्फ महावीर ये कहते हैं कि
तुम भी मेरे जैसा तीर्थंकर बन सकते हो
यदि पूरे पुरुषार्थ से जिन वचन को पालो.
जैन धर्म हर आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्त्व की बात करता है. मोक्ष होने पर भी!
जबकि गीता में श्री कृष्ण ये कहते हैं कि
“कर्म तुम करो, मैं तुम्हें फल दूंगा
और बाद में अपने में “समा” भी लूंगा.
मतलब आपके अस्तित्त्व को वो “स्वतंत्र स्वीकृति” नहीं देते.
जबकि वैदिक धर्म भी ये स्वीकार करता है कि
“अहं ब्रह्मास्मि”
मतलब मैं ही ब्रह्म हूँ.
इन दोनों बातों में “विरोधाभास” है.
जैन धर्म “भक्ति” और “पुरुषार्थ” दोनों को स्वीकार करता है और
आपके “स्वतंत्र अस्तित्त्व” को भी!
भला “स्वतंत्र अस्तित्त्व” को “खोकर” कोई मोक्ष पाता है!
एक बच्चा “कुछ” वर्षों तक “माता-पिता” के सरंक्षण में रहता है.
क्योंकि “जीवन” कैसे जिया जाए, उस के संस्कार दिए जाने हैं.
पर जीवन भर वो “माता-पिता” के सरंक्षण में रहे
वो इच्छनीय नहीं है.
तीर्थंकर आपको “मोक्ष मार्ग” दिखाते हैं
गुरु तो मात्र “ड्राइवर” हैं.
पर ये भी सच हैं कि “सच्चा गुरु” यानी ड्राइवर
पहुँचने के स्थान पर (Destination)
सभी को एक साथ पहुंचाता है,
ऐसा नहीं कि खुद पहले पहुँचता हो और
बाकी को बाद में पहुंचाता हो !
कई साधू भगवान महावीर के बाद दीक्षित हुए,
केवलज्ञान पाकर भगवान से भी पहले मोक्ष गए!
यही एक “सामान्य” गुरु और “तीर्थंकर” में भेद हैं.
जो तीर्थंकर से भी पहले मोक्ष गए,
उस से तीर्थंकरों की महत्ता बढ़ी ही हैं.
और यही कारण है :
“प्रधानम् सर्व धर्माणाम्
जैनम् जयति शासनम्”
कहने का!