1. नवकार पांच परमेष्ठी का अक्षर-शरीर है.
( नवकार के “अक्षरों ” के बिना हम नवकार का “ध्यान” नहीं कर सकते ).
2. नवकार के जाप में एकाग्रता लाने के लिए अक्षरों को “मन” के “पेन” से लिखें.
3. हममें “नमस्कार” करने की शक्ति भी “नहीं” है. इसीलिए “नमुत्थुणं” में “नमस्कार हो” ये कहा गया. “मैं” नमस्कार करता हूँ, ये नहीं कहा गया. ऐसा कहने पर “अहंकार” की भावना आ सकती है, इसलिए!
(कितना “गहरा” जैन धर्म है)!
4. “काया और वाणी” से अनेक गुना “कर्म-क्षय” “मन” करा देता है, कर्म-बंधन भी इतना ही करता है.
(इसलिए “मोह”-राजा का सर्वप्रथम आक्रमण “मन” पर होता है जिस प्रकार शत्रु सर्व प्रथम “हवाई पट्टी” पर आक्रमण करता है).
5. दिन भर में साधू सात बार चैत्यवंदन करते हैं.
(हम कितनी बार करते हैं)?
6. भक्ति “प्रीति” के बिना नहीं आती.
“(अपना काम बनता है, इसलिए “देव” की भक्ति करते हैं तो उसे क्या कहेंगे? आप के पास हरदम कोई “काम” से ही आये, तो चार दिन बाद आप भी उसे दुत्कारेंगे- चल हट, रोज “माँगने/मतलब से” आ जाता है).
7. किसी भी क्रिया में “मन” जुड़े तभी उसमें “प्राणों” का संचार होता है. धर्म क्रियाओं में “मन” ना हो, तो वो “निष्फल” होता है.
(सारी “पाप-क्रियाएँ” “मन” लगाकर की जाती हैं – इसीलिए इसके “फल” भी बड़े “दुष्ट” होते हैं – सिद्ध हुआ कि “मन” से की गयी क्रियाएँ “निष्फल” नहीं जाती -चाहे वो धर्म की हो या अधर्म की).
8. आपके “प्रतिक्रमण” की “उल्लासरहित क्रिया” को देखकर दूसरे भी कहने लगते हैं : क्या रखा है प्रतिक्रमण में!
(आप धर्म क्रिया जिस प्रकार कर रहे हो, उसके कारण दूसरे धर्म से विमुख हो रहे हैं, तो आप धर्म कर रहो हो या अधर्म)!
9. जब मैं सूरत होता हूँ, तब “सूरजमंडन पार्श्वनाथ” के दर्शन करने अवश्य जाता हूँ.
(इसी प्रतिमा के 50 दिन के विधिवत पूजन से नौकर “शांति” से अहमदाबाद का शांति “नगरसेठ” बना).
10. व्याख्यान में लोगों को अच्छा लगे, वो नहीं बोलना है. जो भगवान ने कहा है, वही बोलना सबसे अच्छा है.