“जग चिंतामणि
जग नाह….
जग रक्खण
जग बन्धव…….”
“अरिहंत” जगत के “नाथ” हैं
जगत के “बंधू” भी हैं.
और
जगत की “रक्षा” करने वाले भी हैं.
“बंधू” मतलब “भाई” हैं.
और “रक्षा” करने वाला
सबसे पहले “भाई” होता है.
हम “संसार” में रहते हैं.
यद्यपि “लौकिक रिश्ते” शाश्वत नहीं हैं
फिर भी ये “संसार” का “व्यवहार” है.
जैन-धर्म “व्यवहार” निभाने से मना नहीं करता
परंतु उसमें “रमने” से मना करता है.
इसलिए “भव-भव” से “रक्षा” करने के लिए तो
भगवान् को भी “राखी” चढ़ाये.
(देव-देवी को तो “चढ़ाते” ही हैं).
भावना करें कि भगवान् की “शरण” (रक्षा)
सदा के लिए प्राप्त हो.
“भाई” भी “धर्म-बंधू” है
इसलिए “उसे” राखी बांधते समय भी यही भाव रखें
तो ये “लौकिक पर्व” भी
“अलौकिक” बन जाएगा.