meditation

“जीवन” में हर व्यक्ति “प्रगति” चाहता है, पर क्यों नहीं हो पाती?

कई बार सब कुछ “व्यवस्थित” नज़र आता है पर प्रगति नहीं हो  पाती
वास्तव  में “बाधा” क्या है, ये खबर नहीं पड़ती.

फैक्ट्री खोली है, पर कारीगरों की समस्या है.
प्रोडक्शन हुआ है, दूकान में माल पड़ा है, पर बिक्री नहीं है.
बिक्री हुई है, पर उधार का पैसा नहीं आ रहा.
पैसा आ गया है पर बैंक लोन सर पर खड़ा है
(हर साल बैंक लोन “ख़ुशी से” बढ़ाया जो है ).

 

मूल मंत्र:
“उधार” की बिक्री से आज तक किसी का “उद्धार” नहीं हुआ. “उधारिये” एक बार संतोष देते हैं, पर अंत में दुःख देते हैं.
पैसा आ ही जाएगा ऐसी आशा में ऐशोआराम करके अपने को आशाराम मत बनाना. क्योंकि “उधारिये” की गाडी कहाँ अटकती है, उसका असर “सीधा” खुद पर पड़ेगा. इसे कहते हैं : “वाइड एंगेल!”

तो फिर करें क्या?
धर्म शास्त्रों में “सुख” से “भजने” की बात कही गयी है.
“दु:ख” में  भी “धर्म” करना होगा, ये व्याख्या गलत की गयी है.
“दु:ख” का निपटारा “धर्म” से होगा, ये बात कुछ हद तक सही है परन्तु इसके साथ “कुछ” और जोड़ना होगा.

 

प्रश्न:
वो “कुछ” क्या है?
उत्तर:
वो है पुरुषार्थ.
अब तक जैनमंत्रास.कॉम में ये कहा गया है कि “मंत्र जप” “कार्यसाधक” होते हैं.
“कार्यसाधक” शब्द में दो बाते हैं : एक है कार्य और दूसरा है साधक.

मंत्र देवता “सहायता” करते हैं, खुद कार्य नहीं करते.
(देव स्वयं “सुख” भोगते हैं, वो किसी के दुःख में भला क्यों में भागीदार होंगे)?

 

विशेष:
यदि किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मंत्र साधना की जाती है तो वह बहुत कठिन हो जाती है. जैसे “रावण” को हज़ारों वर्ष की तपस्या करनी “पड़ी” थी, “सिद्धि” प्राप्त करने के लिए.
“सिद्धि” प्राप्त होने पर भी यदि उसका “उद्देश्य” “लोक-कल्याण” नहीं है, तो अंत में “साधक” की दुर्गति होती है.
यदि लोक कल्याण के लिए साधना की जाती है तो अनेक देव सहायक बनते हैं क्योंकि वो देव भी इस धरती के “चमत्कारी पुरुष” को देखना चाहते हैं, उसके दर्शन करना चाहते हैं.
ध्यान रहे कि “देव” उसके  “दर्शन” करने आते हैं या “दर्शन” देने आते हैं.
कौन सी बात अच्छी-
“देव” उसे “दर्शन” देने आएं या उसके “दर्शन” करने आएं?
(ये कुछ गूढ़ बात है, तभी समझ में आ सकती है, जब लोक कल्याण की भावना रोम रोम में बस गयी हो).   

 

जिस प्रकार कमाने के लिए “धंधा” किया जाता है पर कमाए हुवे धन को बिज़नेस में से “नहीं के बराबर निकाल कर “बिज़नेस बढ़ाने के  चक्कर में ” लोन पर लोन लेकर आदमी अंत में  खुद ही  त्रस्त हो जाता है, उसी प्रकार “साधक” भी साधना के उद्देश्यों से “बार बार भटककर” अंत में “दुर्गति” प्राप्त करता है.
(पोस्ट को मात्र पढ़ें नहीं, तीन-चार बार पढ़कर उस पर चिंतन करें, तब जाकर “रहस्य” समझ में आएगा).

High Voltage Alert:
क्या “जीवन” जीने का मतलब “खुद के जीवन” का ही “उद्धार” है?
यदि हाँ, तो इसे दूसरों के द्वारा दिया गया “उधार” का जीवन समझें

error: Content is protected !!