ABCD सीखे बिना बच्चा  पढ़ना नहीं सीख सकता और ये ABCD वो अपने आप तो कभी नहीं सीख सकता. कोई तो उसे चाहिए ही सिखाने के लिए.
प्रश्न:
बच्चा पहले पढ़ना सीखता है या लिखना?
उत्तर:
बच्चा पहले ABCD  बोलना सीखता है.
फिर लिखना सीखता है….घोट घोट कर..
फिर पढ़ना सीख पाता है.
तो भी पूरे साल भर में तो ABCD (बारहखड़ी) भी नहीं सीख पाता.

 

अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई होने के कारण हम संस्कृत और हिंदी की व्याकरण रचना को भूल गए हैं.
(चूँकि संस्कृत तो अब “प्रचलित” भाषा नहीं रही  इसलिए हम हिंदी की ही बात करेंगे).

जैन धर्म का मूल साहित्य प्राकृत और संस्कृत में है. हिंदी में कितना भी अनुवाद करें, वो चीज (टेस्ट) नहीं आ पाएगी जो इन दोनों  भाषाओँ में है.

जैन मंत्र प्राकृत और संस्कृत भाषाओँ में हैं. विडम्बना ये है कि  प्राकृत और संस्कृत दोनों ही भाषाएँ हमें आती नहीं. ना ही हमारी इनमें रूचि है. आज भी हस्तलिखित ग्रंथों की फोटो स्टेट करवाई जा रही है. पर ये आम श्रावकों की पहुँच के बाहर रहेगी.

 

बहुत से जैन स्तोत्रों में उसका “मंत्र” क्या है, उसका जप कैसे किया जाए और उस का यन्त्र कैसे बनाया जाए, वो उसी स्तोत्र में लिखा हुआ है. परन्तु संस्कृत ना जानने के कारण हम उसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं.

जैन धर्म का एक एक स्तोत्र अपने आप में अद्भुत है. ऐसा नहीं कि मात्र “भक्तामर” ही सबसे प्रभावक है. ऐसे अनेक स्तोत्र हैं जिनकी गहराई में यदि जाएँ तो ना सिर्फ सांसारिक कार्य सरलता से होते हैं बल्कि जिन-भक्ति भी उत्कृष्ट हो पाती है.
दु: की बात तो ये है कि हम “भक्तामर” इसलिए पढ़ते हैं कि इससे हमें कोई “बाधाएं” नहीं आएँगी और जीवन सुखी रहेगा. “आदिनाथ भगवान” की भक्ति की तो बात ही कौन करता है?

उवसग्गहरं” स्तोत्र इसलिए पढ़ते हैं कि ऐसे पढ़ने से कोई उपसर्ग नहीं आएगा. “पार्श्वनाथभगवान” के प्रति हमें कहाँ कोई भाव आता है?

 

मतलब “स्तोत्र” के प्रभाव को हमने ही “सीमित” किया है. इसलिए उतना ही मिलेगा जितने के हम “हकदार” हैं. ये स्तोत्र तो हमें “मोक्ष” तक दिला सकते हैं, परन्तु हमें तो “मोक्षचाहिए ही नहीं.

फिर शिकायत करते हैं कि जैन मंत्र प्रचलन में नहीं है. अरे! जितना दिया हुआ है उसकी क़द्र नहीं है और जो अभी पास में नहीं है, उसका रोना रोते  हैं.

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