मंदिर का “शिखर” देखते ही मन में “नमो जिणाणं” बोलना चाहिए.
मंदिर का “शिखर” कहता है कि “आत्मा” को “इतना” ऊँचा पहुंचना है.
पर्वतों पर “मंदिर” होना और चढ़ाई करना – इसका मतलब खुद का लक्ष्य “ऊँचा” रखना है.
ये मात्र “घूमने-फिरने” का स्थान नहीं है.
हाँ, बच्चों के लिए हो सकता है, उन्हें जरूर “घूमने” दें पर पूजा भी अवश्य करवाएं, इतना समय जरूर रखें.
जो संस्कार “बचपन” में पड़ते हैं, वो फिर पड़ने मुश्किल हैं.
फोटो (BY SKR): पालिताना नव टूंक
(ट्रस्टियों की “मूलनायक” भगवान की पूजा में घोर अव्यवस्था के कारण जहाँ आज बिरले ही दर्शन करने के लिए जाते हैं).