वर्तमान में जैन मंत्र क्यों प्रचलित नहीं हैं:

१. “ज्या-दा-त-र” (सभीनहीं)  श्वेताम्बर जैन साधू-साध्वी  कहने भर को मात्र मोक्ष की साधना करते हैं और व्याख्यान भी उसी प्रकार का देते हैं. पर सभी को अपना अपना “प्रभाव” दिखाना है, इसलिए तरह तरह की साधना करते हैं. कई आचार्य और साधू तो विपश्यना की साधना करते हैं, बस चातुर्मास पूरे होने का इंतज़ार करते हैं. वे खाते “महावीर” के नाम का हैं और करते कुछ और है. (ऐसा वरिष्ठ साध्वीजी ने कहा है).

 

ऐसा इसलिए है की “काउसग्ग” के रहस्यों को वो समझे नहीं हैं. जरूरत पड़े तो एक साधू/साध्वी दूसरे साधू/साध्वी को नीचा दिखाने  से भी नहीं चूकते.  कुछ साधू खुले रूप से चातुर्मास का रुपया “indirectly”  बटोरते हैं. ये हकीकत है. जिसे jainmantras.com खुल कर समाज के सामने ला रहा है. (इस बारे में अन्य पोस्ट्स भी पढ़ें).

दूसरे फंद में रचे होने के कारण, उन्हें “साधना” में उतना समय ही  नहीं मिल पाता. तो मंत्र सिद्ध कहाँ से होंगे?

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२. “ज्या-दा-त-र” साधू-साध्वियों को भी “मंत्ररहस्य” तो क्या, बीजाक्षर क्या होते हैं, ये भी नहीं पता.

 

३. भक्त ये मानते हैं कि इनके पास बहुतकुछ है, जबकि उनके पास “देने” के लिए “बहुतकुछ” नहीं है.

४. जिन्हें “थोड़ाभी” मंत्र-ज्ञान है, वो “शो” इस प्रकार का करते हैं, मानो बहुत बड़े मंत्र-सिद्ध किये हुवे  हों. ऐसा प्रचार उनको घेरे हुवे 4-5 लोग करते हैं.

 

५. असल में तो मंत्र वे उसे ही देते हैं जिनका “चेहराचमकता हो. ये तो सामान्य “सामुद्रिकलक्षणों” से ही पता पड़ जाता है कि किसका भाग्य कैसा  है.
मजा तो तब है जब मंत्रविज्ञान से हर श्रावक “सदा” के लिए जिनधर्म के प्रति अपना अहोभाव रखे.
क्योंकि सारे सूत्र (नवकार, लोगस्स, करेमि भंते, जय वीयराय, उवसग्गहरं, सिद्धाणं बुद्धाणं, इत्यादि  अति उपकारी मंत्र) हैं, यदि उनके प्रति अगाध श्रद्धा हो जाये, तो काम बन जाए.  और ये जिन-सूत्र सभी श्रावकों को बिना भेद-भाव के दिए गए हैं.

 

अब असली बात:-
१. कई बार साधना में श्रावक आगे निकल जाते हैं. दिल्ली निवासी श्रीमतीकेसरदेवी ढड्ढा, इत्यादि इसके उदाहरण हैं.
२. सभी श्रावक रोज नवकार महामंत्र भी नहीं गुणते. जो गुणते भी हैं, तो खाना पूर्ति  करते हों, वैसे गुणते हैं.
३. जन्म-कुंडली लिये-लिये ज्योतिषियों के पास “घूमना” – श्राविकाएं  ही नहीं, श्रावक भी देखे जा सकते हैं.

उस समय एक साधारण पंडित भी ऐसा रोल अदा करता है मानो वो त्रिकालदर्शी हो.  (हमने ही उन्हें बहुत ज्यादा “मान” दिया  है  जबकि ज्यादातर पंडित कोई साधना नहीं करते, ऐसा मेरा अनुभव है). कई बार तो शादी के अच्छे सम्बन्ध ज्योतिषियों के कारण बिगड़ते देखे गए हैं. ये इसलिए लिखा जा रहा है कि एक तरफ तो वो सारी  समस्याओं के निवारण करने का दावा करते हैं और दूसरी तरफ जब जरूरत हो, तब काम बिगाड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखते.

 

विशेष:
जीवन की अंतिम अवस्था में भी मंत्र सिद्ध हो जाए, तो भी बहुत है. हां, सच्चा गुरु मिल जाए तो मंत्र जल्दी सिद्ध हो जाता है. (“हो सकता है” नहीं, हो ही जाता है क्योंकि गुरु “देता” है, लेता नहीं है- जो लेता है, वो गुरु ही क्या हुआ).

अति विशेष:
जिन साधू-साध्वियों का चारित्र बहुत ऊँचे दर्जे का है, फक्कड़ किस्म के हैं, उनके मंत्र तो क्या, “आशीर्वाद” भी बहुत है हमारे  जीवन का  उद्धार करने के लिये.

 

दो वर्ष पहले ही लगभग 70 वर्ष के एक जैन साधू जो श्री तारंगा तीर्थ की तलहटी के साधू-वृद्धाश्रम  में विराजमान थे, उनसे मैंने पूछा आपने “धर्म” कितना पाया? (ज्यादातर तो ये प्रश्न श्रावकों को झेलना पड़ता है). उन्होंने जवाब दिया : मुझे “नवकार” आता है और “दो प्रतिक्रमण सूत्र,” बस और कुछ नहीं आता है. उनके सत्यवचन सुनकर मैंने श्रद्धा से उनके आगे शीश झुकाया. जैनी होने का दावा करने वाले हम; क्या हमने “ये” भी प्राप्त कर लिया है?

आगे पढ़ें: मंत्र रहस्य : jainmantras.com-3

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