लिखते समय एक लेखक
मौन धारण किए दिखता है.
परन्तु वास्तव में तो वो
विचारों के शस्त्रों से
अभिमन्यु की तरह घिरा होता है.
कलम की नोक (ब्रह्मास्त्र) से,
एक एक शब्द से;
उन विचारों को “योग्य परिणाम” देता है
जो उसे “घेरे”हुवे होते हैं.
एक लेखक
समाज के “पेट” से जन्म लेता है
और सम भाव में रहते हुवे
समाज को समर्पित रहकर
अपना जीवन “पूरा” करता है.
भोग की दृष्टि से
स्वयं जीवन नहीं “जीता”
फिर भी “जीत” कर
परम अवस्था को प्राप्त कर लेता है.
ये इतिहास,
ये शास्त्र,
ये शिक्षा,
ये जीवन,
ये मृत्यु बोध !
इन सबको वो एक साथ
दोनों आंखों से
एक ही दृष्टिकोण से देखता है.
किसलिए देखता है?
ये बताने के लिए शब्द नहीं मिलते!
सुरेन्द्र कुमार राखेचा “सरस्वतीचंद्र”