हर व्यक्ति मरते दम तक कुछ न कुछ “पाने” की सोचता रहता है
या फिर अपने “मन” में जो है, वो “करने” की सोचता रहता है.
मरने से पहले कई बार पूर्वाभास होता है या फिर “उम्र” का भय उत्पन्न होता है कि अब “जाने वाला” हूँ (मेरे पिताजी 72 की उम्र में चल बसे थे, मुझे तो 74 आ गए).
“अपने” रिश्तेदारों को अपनी “कमाई” या “पैतृक” संपत्ति जो खुद के हिस्से में “आई,”
उसका “बंटवारा” अपनी “इच्छा” से करना चाहता है.
वसीयत करने का एक उद्देश्य ये भी होता है कि आगे फिर झगड़ा ना हो
(ज्यादातर किस्सों में ऐसे व्यक्तियों का अपने ही भाइयों से जीवन भर झगड़ा चलता रहा है).
कुछ लोग जीवन के अंत से पहले उन रिश्तेदारों को “सबक” सिखाना चाहते हैं
जिंहोने ढलती उम्र में उनकी नहीं सुनी.
इसलिए अपनी वसीयत में उन्हें कुछ भी “नहीं” देना का प्रावधान करते है.
यहाँ तक जो बात हुई, वो शरीर के संबंधों तक हुई.
जीवित अवस्था में “मन” की हुई
इसलिए जैसा “मन” में आया,
वैसा प्रावधान अपनी वसीयत में किया.
वसीयत के अंतिम पैराग्राफ में वो ये अवश्य लिखता है
कि ये मेरी पहली या अंतिम वसीयत है
और मैंने इसे पूरे “होश-हवाश” में लिखी है.
किसी ने किसी तरह का दबाव नहीं किया है.
ये बात बताती है कि उसमें “चेतना” है कि क्या करना चाहिए – अपने मन की शांति के लिए.
अब बात आती है “आत्मा” की.
मरने के बाद “आत्मा” को किस गति में ले जाना है,
ये “चेतना” विरलों में ही होती है.
जीवन भर व्याख्यान में “आत्मा – आत्मा” शब्द लाखों बार सुना
पर उसकी “गूँज” वहां तक नहीं पहुँच पायी
क्योंकि “दरवाजा” खुद ने ही “बंद” कर रखा था
और “खोलने” की इच्छा भी नहीं थी जबकि
गुरुओं ने खूब “खटखटाया.”
मन में कई बार सोचा : गुरुओं का तो काम ही यही है.
अब जिस चीज का जीवन भर “अभ्यास” ही ना किया हो,
तो “अंत” समय में याद कैसे आ सकता है?
इसलिए जीवन के अंतिम क्षणों में भी “शान्तिदास” अपने को “आत्म-तत्त्व” से दूर रखकर
“शान्तिदास” ही समझता है और उसी अनुसार सारी व्यवस्था करने की कोशिश करता है.
पूरी पोस्ट में कहीं कहीं बहुत “घुमाव” आया है.
बात ही “घुमाने” की है.
खुद की “वसीयत” तो बना सकता है
कुछ “सुरक्षा और सुविधा” दूसरों के “हक़” में दे सकता है,
पर खुद को “किसकी शरण” में जाना है
क्या इसकी “वसीयत” बनाने का विचार आया है?
इसका “हक़” उसे इस “मनुष्य” जन्म में नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा!
विशेष:
जिनकी उम्र फिफ्टी प्लस है, वो पोस्ट को आराम से पढ़ें और फिर चिंतन करें.
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संपत्ति के लिए अपनी “आत्मा” को “गिरवी” रखने के लिए भी तैयार हैं.