1. “परम तत्त्व” का “अनुभव” सिर्फ “ध्यान” में जाने से ही होता है पूर्व जन्म के संस्कार के कारण किसी-किसी को स्वत: ही “ध्यान” होता है जबकि ज्यादातर को तो इसमें “पुरुषार्थ” ही करना होता है.
2. स्वयं में “परम -तत्त्व” का
अनुभव होने के बाद
व्यक्ति को “पर-तत्त्व” की ओर
भागने की इच्छा ही नहीं रहती.
3. हर व्यक्ति को अपने जीवन में
कोई ना कोई “महापुरुष” से मिलने का
“संयोग “ मिलता ही है
पर ज्यादातर लोग तो उस समय “पुरुष” ही नहीं होते
इसलिए उनसे “मिलकर” भी अपना उद्धार नहीं कर पाते.
4. “महापुरुषों” का जन्म कहाँ हुआ था
वो इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है
जितना वो स्थान जहाँ उनका
“दाह-संस्कार” हुआ है.
5. अब तक जितना समय हमने
“आत्म-चिंतन” में लगाया है,
बस उतनी सीढ़ियां
हमने “मोक्ष-मार्ग “ की चढ़ी हैं.
6. “मैं” अपना जीवन कैसा जी रहा हूँ,
और कैसा जीना चाहिए,
इसका विचार यदि “सोते” समय करेंगे
तो आने वाले समय में “रोते” हुवे नहीं रहेंगे.
7. “आँखें” बंद करते ही “निर्विचार” हो जाए,
वही “आत्म-साधना” उत्कृष्ट होती है.
8. कोई कितनी भी कोशिश क्यों ना करे,
अपने सारे अनुभव कभी भी नहीं बता सकता.
“स्व- अनुभव” को “शब्दों” में बताना संभव ही नहीं है.
9. “मन” की “इच्छाएं” यदि “शांत” हो जाएँ,
तो समझ लेना “मुक्ति” बहुत पास में है.
10. जिस प्रकार धंधा करने वाले को “रोज”
अपने “धंधाकीय” स्थान पर जाना होता है,
पढ़ने वाले को “स्कूल या कॉलेज” जाना होता है
(अरे! पढ़ाने वाले को को भी रोज वहीँ जाना “पड़ता” है) 🙂
उसी प्रकार जिसे साधना में आगे बढ़ना है,
उसे पूरे जीवन “साधना” करनी होगी,
तब तक करनी होगी जब तक “आत्म-दर्शन” ना हो जाए.
11. जिसे “संसार” से
“कुछ” भी “प्राप्त” नहीं करना हो
वही “संसार” को
“बहुत कुछ” दे सकता है.
12. नित्य ध्यान करने वाले की
“सांसारिक बाधाएं”
टिकती नहीं है.
“ऊपरी बाधाएं”
तो उसके पास भी नहीं फटकती.