1.“समृद्धि” प्राप्त करने का “अधिकार” हर जीव को है.
परन्तु देखा ये गया है कि
“अधिकतर” लोग “अधिकारों” का “दुरुपयोग करते हैं.
“थोड़ी” सी “समृद्धि” मिली नहीं कि
“आपे” से बाहर हुआ नहीं.
(“अधिक” और “अधिकार” दोनों एक शब्द से ही तो बने हैं).
नतीजा:
“पापकर्म” की “अधिकता”
फिर वो पापकर्म रिजल्ट भी “अधिक” ही देता है.
कैसा रिजल्ट देता है, वो सब जानते हैं.
(इस मामले में सभी ज्ञानी हैं).
2.“संयोगवश” कोई पाप हो जाए,
जिसमें कोई “इच्छा” ना रही हो,
ऐसे पाप से “छुटकारा” बहुत आसान होता है.
ऐसे पाप के “फल” से तो उसी दिन “छुटकारा” हो जाता है
जब “पाप-कर्म” वाले दिन ही “प्रतिक्रमण” कर लिया हो!
3. “समय” शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है.
१. “सम” २. “मय”
यानि हमें हर “समय” को
“सम” “मय” रूप में लेना है.
सीधी भाषा में :
सुख का समय हो या दुःख का
उसे “समय” पर ही छोड़ दें,
खुद उसमें “लिप्त” ना हों.
मोक्ष की गारंटी है.
4. यदि “समय” को “देखना” आ गया,
(“वर्तमान” की बात कर रहा हूँ, “भविष्य” की नहीं)
तो फिर किसी ज्योतिषी के पास जाने की आवश्यकता नहीं रहती.
5. जब अचानक से कोई कार्य बनने लगें
तो उस समय का फायदा जरूर उठायें
उस समय नए कार्य किये जाने चाहिए.
परन्तु
जब अचानक से कार्य बिगड़ने लगें,
तो एकदम सावधान हो जाएँ.
ये मानकर ही ना चलें कि जो कार्य अच्छा चल रहा है,
वो वैसा ही चलेगा.
6. “मन” किसका है?
“शरीर” का या “आत्मा” का?
जिसने “शरीर” का माना है, वही दुखी है.
जिसने “आत्मा” का माना है, वही सुखी है.
“आत्मा” ने “शरीर” धारण किया है
ना कि
“शरीर” ने “आत्मा” को “धारण” किया है.
सड़क पर खड़ी चमचमाती कार लोगों को आकर्षित करती है
भले ही उसका “इंजन” (engine) खराब ही क्यों ना हुआ हो!
कार के मालिक से पूछो
कि वो उस कार से
सुखी है या दुखी.