1. अगर हम संस्कृत भक्तामर स्तोत्र के श्लोक को आँख बंद करके पूर्ण ध्यान से, अपनी बुद्धि के अनुसार धीरे धीरे शुद्ध पढ़ें तो क्या ये भी ध्यान करना कहलायेगा ?
और
2. क्या ऐसे हमे ध्यान की प्रैक्टिस करनी चाहिए.
प्लीज उत्तर दें.
पूर्वभूमिका:
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“भ्रम” से हमने ये मान लिया है
कि “शिविर” में जाने से ही ध्यान सीखा जाता है.
“अमुक मुद्रा,” “श्वास,” “चक्र” “कुंडलिनी,” “प्राणायाम” इत्यादि
को इतने दिन बताया जाता है कि “व्यक्ति” सोचता है ये मेरे “बस” का नहीं है.
हकीकत में ये सब “ट्रेनर” के “पब्लिसिटी स्टंट” हैं.
इन सबको अपने अपने “फॉलोवर्स” बनाने हैं.
जबकि ध्यान है “मुक्त” होने का “अभ्यास”
परंतु लोग “बन” रहे हैं “चेले”
१. जो प्रक्रिया आपने बतायी है, वही ध्यान है.
हर किसी के ध्यान की “स्थिति” अलग होती है.
इसीलिए सभी एक सी ध्यान-विधि करते हुवे भी
“एक ही स्थिति” तक नहीं पहुँचते.
(ट्रेनर की उनको “ऊँचा” पहुँचाने की “हार्दिक इच्छा” भी नहीं होती).
“किसी वस्तु या विषय” पर “एकाग्रता” ही ध्यान है.
सतत उसी विषय पर “चिंतन” करना ध्यान है.
२. ऐसे ध्यान करने से बहुत ही जल्दी उच्च स्थिति प्राप्त होती है.
कारण – “मंत्र” जो साथ में है ध्यान के साथ !