अनुमोदना

जैन धर्म में करने, कराने और अनुमोदन करने का “फल” एक सा बताया गया है.
स्वयं भगवान महावीर ने भी कई बार आनंद और शंख श्रावक, रेवती श्राविका इत्यादि की अनुमोदना की है.

“प्रशंसा” और “अनुमोदना” में क्या फर्क है?
किसी की “प्रशंसा” करना यानि उसके “अहंकार” को बढ़ावा देना है. जिसकी प्रशंसा होती है, वो अपने को अन्य से बड़ा समझने लगता है.

 

जबकि किसी की “अनुमोदना” करने से उसका ना तो अहंकार बढ़ता है और ना ही किसी प्रकार की अन्य कोई संतुष्टि उसे मिलती है. पर ये सच है की किसी की अनुमोदना करने से अनुमोदना करने वाले के “मन के भाव” अवश्य ऊँचे होते हैं और परिणामस्वरूप वो भी “वैसे” ही कार्य करने के लिए “उत्साहित” होता है जैसा कि पहले वाले व्यक्ति ने किया है.
कोई ये ना समझे कि “अनुमोदना” करने से “दूसरे” में कोई कम्पीटीशन करने की भावना आती है.
“अनुमोदना” शब्द बहुत बोलने में बहुत सुन्दर, सुनने में बहुत शांतिदायक और सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि ये “पुण्य” उपजानेवाला है. पूरे समाज को प्रेरणा देने वाला है.
किसी की “सच्ची” प्रशंसा तो क्या, “झूठी प्रशंसा” भी लोग नहीं कर पाते! 🙂

 

कारण?
ईर्ष्या की भावना जो आती है.
एक मित्र दूसरे मित्र की मन से प्रशंसा नहीं कर पाता.
पर वही यदि अट्ठाई करता है, तो दूसरा मित्र “मन” से उसके “तप” की अनुमोदना करता है.
इसे वैसा ही समझें कि इंडिया की क्रिकेट “टीम” वर्ल्ड कप जीत कर लायी हो और पूरा देश ये माने कि “हम” वर्ल्ड कप जीत गए हैं और सभी एक दूसरे को बधाई देते हैं! 🙂

 

ऐसा “व्यवहार” जैनों के अलावा कहीं और  देखने को नहीं मिलता.
इस पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद आप की भी “अनुमोदना” करने की “इच्छा” यदि हुई हो तो अपने को रोके नहीं.  “अनुमोदना” करके अवश्य “पुण्य” के “भागीदार” बनें.
(पुण्य के भागीदार बनने के लिए “पार्टनरशिप डीड” में “आपणा” नाम होना जरूरी नहीं है) 🙂

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