“क्षमापना” जैनों के लिए एक रूटीन नहीं है.
ये “अन्तर्जाग्रति” है.
जो “अहंकार” को मानता है,
वो “आत्मा” को नहीं मानता.
जो “आत्मा” को मानता है
वो “अहंकार” कर नहीं सकता.
हम अपनी स्थिति स्वयं चेक कर सकते हैं, दूसरे की जरूरत नहीं है.
हमने जो पाप अनजाने में किये हैं, वो दूसरे को क्या पता?
क्या वो अन्तर्यामी हैं जो हमें “प्रायश्चित” दें सकेंगे?
बड़े बड़े आचार्यों ने तीर्थंकरों के आगे खुद को “ढपोल शंख” बताया है.
ये उनका “बड़प्पन” है.
यदि खुद को “ऊँचा” साबित करने की कोशिश करते तो स्थिति विपरीत होती.
एक बार श्री सिमंधरस्वामी ने “निगोद” का वर्णन किया.
उनकी वाणी से चमत्कृत होकर देवलोक से आये “शक्रेन्द्र” पूछा कि हे भगवन! है कोई इस संसार में जो “निगोद” का वर्णन आपके जैसा ही करने में समर्थ है?
भगवान ने मथुरा में विराजमान श्री आर्यरक्षित सूरीजी का नाम लिया.
परीक्षा के लिए आया…..उनसे “निगोद” के बारे में पूछा.
जैसा भगवान ने बताया, उन्होंने वैसा ही बताया.
विशेष:
वो आचार्य “तीर्थंकर” जैसे हैं, क्या हम कह सकेंगे?
उत्तर है : हाँ.
क्या आचार्य खुद ये कह सकते हैं कि
“मैं जैसा निगोद के बारे में बताता हूँ, वैसा ही तो तीर्थंकर बताते हैं!”
तो उत्तर है : ना.
(जैन धर्म के रहस्यों को समझना और उससे भी ऊपर इसे पचा पाना बहुत दुष्कर है, बहुत मुश्किल है. इसीलिए भगवान ने कहा है : जिन वचन पर श्रद्धा रखो. खुद का “दिमाग” मत लगाओ).
वापस आते हैं मूल विषय पर:
की हुई भूलों के लिए “माफ़ी” भी मिल जाए तो बहुत है!
“किये हुवे” अपराध के लिए “कोर्ट” माफ़ी देता है क्या?
उत्तर है नहीं!
इसीलिए व्यक्ति “अपराध” करने से डरता है.
तो जो “अपराध” हुवे हैं परन्तु दूसरों को उनकी जानकारी नहीं है
तो इसका क्या उपाय है?
“शुद्ध” मन से “माफ़ी.”
इतना सरल उपाय है.
(यदि “आत्मा” नाम के “तत्त्व” की महत्ता खुद ने स्वीकार कर ली हो तो).
शंका:
तो फिर इतने जन्मों में जो पाप किये हैं उनसे माफ़ी कैसे मिलेगी?
उत्तर:
किये हुवे पापों की ज्यादातर “सजा” तो मिल ही चुकी है.
और कुछ का “दंड” तो अभी भी मिल ही रहा है.
(जिनको भी जीवन में “भयंकर समस्याएं” हैं वे अवश्य “सावधान” हो जाएँ).
जिसे “सजा” मिलती है,
वो बाद में अपने “पाप” का स्वीकार “मन” से भी करता ही है.
“स्वीकार” शब्द बना है : “स्व” और “ईकार” से.
यानि स्व (खुद) को ईश्वर ((खुदा)) स्वरुप बनाना!