श्री शांतिगुरुदेव!
नाम लेते ही सब जगह आनंद छा जाता है.
“आनंद” “छा” जाने का अर्थ है :
१. मन में प्रसन्नता
२. मन में उत्साह
३. चिंता-मुक्ति
(चिंता मुक्ति और प्रसन्नता दोनों एक नहीं है)
४. गुरु से अपनापन
५. भक्ति का आनंद
मात्र एक शांतिगुरुदेव ऐसे हैं जिन पर कुछ लिखना यानि खुद को लज्जित करने जैसा है.
फिर भी लिखने से रहा नहीं जाता.
यदि नहीं लिखूं, तो ऊपर की पांचों बातें ही व्यर्थ घोषित हो जाती हैं.
खुद “गुरु” की ये “इच्छा” है, कि मैं “कुछ” लिखूं!
वे हैं “सरस्वती-साधक”
मैं हूँ “सरस्वती-आराधक”
वे हैं “अर्हं” की धुन लगाने वाले,
मैं हूँ “अहं” की बीन बजाने वाला,
वे हैं “समय” को “जीतने” वाले,
मैं हूँ “समय” से “पिछड़ने” वाला,
जो वो कहें, तू चल मैं अभी आता हूँ.
मैं कहूँ “आगे” कैसे रहूँ मैं,
मैं तो “पीछे” चलने वाला हूँ.
जो वो कहें अब चला जा यहाँ से
मैं कहूँ अब जाऊं कहाँ छोड़ तेरे दर से!
जो वो कहें अभी तेरा “उद्धार” नहीं है,
मैं कहूँ मेरा “उधार” तो तेरे पास ही है.
जो वो कहें तू निरा “मूर्ख” है
मैं कहूँ सुनकर
मेरा पीला मुख
लाल-गुलाबी “सुर्ख” है.
(गुरु के आगे जो “मजा” मूर्खता में है, वो “बुद्धि” में कहाँ है ) 🙂
एक गुरु अपने सबसे “निकम्मे”
चेले के आगे “हार” जाता है.
बुद्धि में “चेले” की
कुछ “घुसता” नहीं है.
गुरु “लाचार”
उसे “छोड़” सकता नहीं है. 🙂
विशेष:
भक्ति की कोई भाषा नहीं होती है.
जहाँ भाषा होती है,
वहां वो भक्ति नहीं होती है.