किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है,
उन सब पर “ध्यान” लगाना “मिथ्यात्व” है.
– ये बात कही है “आत्म-मनीषी” श्री “मनीष सागर जी” ने!
तीन वर्ष पूर्व सूरत में कहे गए
इनके इतने “सारगर्भित वचनों” ने
मुझे “पूरी तरह” “हिला” डाला.
जो जो व्यक्ति अपने आप को “धार्मिक” समझते हों,
वो अपने बारे में दोबारा चिंतन कर लें.
जैन धर्म में तत्त्व रूप से वो ही स्वीकार्य है
जो “आत्मा के उत्थान” के लिए किया जाए.
श्री घंटाकर्ण महावीर,
श्री माणिभद्र वीर,
श्री महालक्ष्मी इत्यादि को
“अपने सांसारिक कार्यों” की सिद्धि के लिए पूजते हैं,
जो इनको इसलिए पूजते हैं कि हमारे सांसारिक कार्य हमें जिनेश्वर भगवान् की भक्ति में बाधा ना पहुंचाए,
वो सब व्यक्ति “सम्यक्तत्वधारी” हैं.
(ये अधिष्ठायक देव और देवी स्वयं तो समकितधारी ही हैं).
इसका विस्तृत खुलासा jainmantras.com की पब्लिश होने वाली पुस्तक
“जैनों की समृद्धि के रहस्य” नामक पुस्तक में किया जाएगा.