1. मृत्यु शय्या :
“पूरे दिन में हमने क्या किया”
इसका विचार करने के लिए हमें रात को सिर्फ 10 मिनट चाहिए
(हकीकत में तो दस मिनट भी नहीं).
“पूरे जीवन में मैंने क्या किया”
वो मृत्यु शय्या पर पड़ा आदमी
मात्र 1 घंटे में सब विचार कर लेता है.
तो क्या रोज मात्र 1 घंटा भी
“धर्म-ध्यान” ना करें?
यदि “धर्म-ध्यान” नहीं किया तो
अंतिम समय में क्या याद करोगे?
जीवन भर का रोना?
2. “आध्यात्मिक उन्नति” (को मापने वाला
कोई “यन्त्र” आज तक इस दुनिया में नहीं हुआ.
हाँ, “दो व्यक्ति” हुवे हैं इस जगत में,
जो इसको मापते हैं :
१. गुरु (यदि वो सक्षम हो)
२. शिष्य, श्रावक या भक्त
(वो तो “मापने” की बाल-चेष्टा करता है, माप नहीं पाता).
(नोट : भूलकर भी सभी “गुरुओं” को एक समान ना मानें
– योग्य गुरु की खोज में “शास्त्रों” ने “शिष्य” को 12 वर्ष का समय दिया है
– कैसे वो “शिष्य” रहे होंगे और कैसे वो गुरु! ).
3. जब रोग के कारण आँखें सूख जाती हैं
तब उसकी दृष्टि भी अत्यन्त कमजोर हो जाती है.
व्यक्ति चाहकर भी “आंसूं” नहीं निकाल पाता .
क्या हमारी भी स्थिति यही नहीं है?
“भव-रोग” से हम इतने ग्रस्त हो चुके हैं कि
अब भगवान् के सामने भी हम “रो” नहीं पाते.
4. सभी जीवों से “क्षमा” मांग सकते हैं,
की हुई भूलों के लिए – प्रतिक्रमण में.
अपनी ही आत्मा की उन्नति के लिए बाधक कौन है?
हम “खुद” !
“खुद” से “क्षमा” कैसे मांगेंगे?
5. जीवन की बिडम्बना:
“मूर्ख” अपने को “बुद्धिमान” समझता है.
और
“बुद्धिमान” अपने को “मूर्ख” समझता है.
6. “दुःख” पास में फटके भी नहीं,
उसके लिए “मन” को ही
“ऐसी फटकार” लगाएं कि
वो कभी “बुरा होगा”
ऐसा सोचे ही नहीं.
अपने “मन” को ही
“अलादीन के चिराग का राक्षस”
समझ लें
जिसे आपको जीतना है.
और एक बार उसे जीत लिया
फिर जीवन भर जीत ही जीत है.