thoughs of meditation, meditation in jainism

चिंतन कणिकाएं-4

 

1.एक वकील केस “लड़ता” है.
ये “लड़ना” शब्द ही बता रहा है कि
“कोर्ट” (court) में उसे क्या करना पड़ता है.
“झूठ” को “सत्य” जैसा “प्रकाशित” करना
और जो इसमें “माहिर” हो
उसके पास क्लाइंट्स (clients) की कमी नहीं रहती.
कई बार तो जज भी उसके द्वारा दी गयी दलीलों पर खुश होते हैं.
ये जानते हुवे भी की वास्तव में ये “झूठा” है.
हमारी स्थिति भी कहीं ऐसी ही तो नहीं है.
“झूठी शान” के लिए हम क्या नहीं करते!

 

2.“उत्कृष्ट कार्य” के लिए “आत्मबल” चाहिए.
“आत्मबल” के लिए “एकाग्रता” चाहिए
“एकाग्रता” के लिए “मंत्र-साधना” चाहिए
“मंत्र-साधना” के लिए “लक्ष्य” चाहिए
और लक्ष्य के लिए?
वो तो खुद को ही निर्धारित करना होगा.
और यदि लक्ष्य ही उत्कृष्ट कार्य के लिए नहीं है,
तो सब “गुड-गोबर” हो जाएगा.

3. जिन जिन की सांसारिक इच्छाएं पूरी नहीं हुई हैं,
वो ये समझ लें कि
उतना वो “मुक्ति” के अधिक नज़दीक जल्दी पहुँच सकते हैं
यदि “अप्राप्ति” का “अफ़सोस” उनको ना हो.
“साधुओं” ने तो ये “सुख” सामने से चलकर छोड़े हैं.

4. जब तक व्यक्ति (जीवात्मा) में
“मति” ज्ञान ही “हावी” हो
यानि हर कार्य करने में “बुद्धि” का ही प्रयोग करता हो
ऐसा व्यक्ति अपने रिश्तेदारों के व्यवहार में भी नुक्स निकालता है
और अंतत: सभी का “प्रेम” खो बैठता है.
नतीजा : “बुढ़ापा” (old age) बहुत दुःख से निकलता है.

5. जिस प्रकार व्यापार में “डुप्लीकेट” (duplicate) व स्तुवें खूब बिक जाती हैं
उसी प्रकार “धर्म” के नाम पर भी “खोखला धर्म” खूब चल जाता है.
जिसे “ओरिजिनल” (original) पसंद है,
तो उसकी जांच खुद को ही करनी होगी.
मात्र “सत्यमेव जयते” (satyamev jayate) के नारे लगाने से वो प्राप्त नहीं होगा.
सत्य की खोज स्वयं को करनी होगी.

 

6. तीर्थंकर परमात्मा से कहो कि
हे भगवान् !
हम अब किसी के “दास” ना बनें,
यही “अरदास” (prathna) है.

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