thoughts in meditation, jainism, jain

चिंतन कणिकाएं-5

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1.”अरिहंत” कभी नहीं कहते कि तुम “मेरी” शरण में आ जाओ.
ये तो “गुरु” कहते हैं कि “तुम” “अरिहंत” की शरण लो.
हो ये रहा है कि व्यक्ति “गुरु” की शरण तो ले लेता है
(उनकी प्रत्यक्ष मौजूदगी के कारण)
परन्तु “अरिहंत” तक नहीं पहुँच रहा.

2. यदि “शब्द” नहीं होते
तो ये “श्रुत -ज्ञान” नहीं होता.
और
यदि “श्रुत-ज्ञान” नहीं होता
तो “तीर्थंकर” भी
हमारा “कल्याण” नहीं कर पाते.

3. “बहुत सी बातों” पर
“निर्विचार”
होने के बाद ही
“एकाग्रता” आती है
और
एक बार “मन” में
“एकाग्रता” का “अभ्यास” हो गया,
तो
फिर उसमें “महारत”
हासिल हो जाती है.

4. “धर्म प्रचार” से “भीड़” इकट्ठी हो सकती है
परन्तु उसका “प्रभाव” बहुत थोड़ी देर के लिए आता है
इसलिए बार बार “प्रचार” करना पड़ता है.

“धर्म प्रभावना” में
धर्म के प्रभाव से लोग स्वयं आकर्षित होकर “धर्म” को अपनाते हैं,
उन्हें कहना नहीं पड़ता.

“अच्छी” चीज जहाँ मिलती हो,
वो “माउथ पब्लिसिटी” से स्वयं अपना मार्किट बना लेती है,
उसे “विज्ञापन” नहीं करना पड़ता.

5. “धर्म प्रचार” और “धर्म प्रभावना” में
दिन रात का अंतर होता है.
“प्रचार” अँधेरे जैसे होता है,
जिसमें “रोशनी” करनी पड़ती है.

“प्रभाव” उजाले जैसा होता है,
वहां किसी को कहना नहीं पड़ता कि
यहां “उजाला” है.

6. जिस “फक्कड़ मस्त” गुरु के आगे
“मस्तक” अपने आप झुक जाता हो,
समझ लेना वहीँ “तक”
आपको पहुँचने की जरूरत थी.

ऐसे गुरु को “प्रचार” के
आडम्बर की जरूरत नहीं होती.
उसकी खुद की आँखें “चार” होती हैं.

7. अत्यन्त “चेतन” रहते हुवे भी
“भाविक जीव” से
“भूलें” होनी “स्वाभाविक” है.
‘भूलें भले हो से इस “भव” में,
पर किसी के प्रति “दुर्भाव” ना रखें.”

8. जितना हम “अपनों यानि दूसरों”
के बारे में सोचते हैं
यदि उतना “खुद” के बारे में सोच लें
तो अपना तो क्या
“दूसरों” का भी कल्याण हो जाए.

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