“दान” कौन दे पाता है?

जिसका अभी पुण्य प्रबल हो,
जिसे पूर्व जन्म के संस्कार मिले हों,
जिसे इस जन्म में कुछ “प्राप्ति” हुई हो,
जिसने “धर्म” को “स्पर्श” कर लिया हो,
जिस पर “गुरुओं” की वाणी का “प्रभाव” पड़ता हो,
जिसकी “आत्मा” सरल हो,
जिसे “भविष्य” की चिंता इसलिए नहीं है क्योंकि उसे धर्म पर “अटूट” विश्वास है,
जिसे “महालक्ष्मी” का वरदान प्राप्त है,
और तो और
जिसकी तीर्थंकरों के प्रति भक्ति “अनुमोदनीय” है.

 

इससे भी आगे बात ये है कि जिसने “आत्म-तत्त्व” को जान लिया हो,
वो “थोड़ा दान” तो क्या, “सर्वस्व” देने में भी नहीं हिचकिचाता
और यही वो सब करता है
जब “भागवती दीक्षा” लेने से पहले अपने दोनों हाथों से “वर्षीदान” देता है.

कुछ “लेने” की भावना जब तक है,
तब तक “दरिद्रता” गयी नहीं है, ये पक्का समझ लेना.

 

कुछ लोग अपना “ज्ञान” छिपाते है, इसलिए कि “दूसरे” उससे आगे ना निकल जाएँ.
कुछ लोग अपना “पैसा” छिपाते हैं, इसलिए कि “लुटेरे” ना आ जाएँ.
कुछ लोग अपनी “शक्ति” छिपाते हैं, इसलिए कि फिर “चैन” से जी ना सकेंगे.

हालांकि सभी वस्तुएं प्रकट करने के लिए नहीं होती,
पर जब “समाज” का कार्य हो तब तो पूरे “पुरुषार्थ” यानि तन-मन-धन से जो जुट गया, समझो उसने अपना जीवन सार्थक कर लिया.

 

वरना इस संसार से  “भिखारी” भी अपना “लोटा” यहीं छोड़ कर चला जाता है
और मोटा सेठ भी अपना “मोटा” धन यहीं छोड़ कर चला जाता है.
(पर दोनों ने मरने से पहले सब कुछ छोड़ दिया, यानि “दान” कर दिया, ये नहीं कह सकते).

प्रभु से प्रार्थना करें कि “मरने” से पहले हम जिसे “अपना” (धन, परिवार, शत्रु- मित्र, इत्यादि) समझते हैं,
उन “सबको” छोड़ दें.

मुक्ति सरल हो जायेगी.

 

“अंतिम प्रश्न”
क्या मुक्ति इतनी सरल है?
उत्तर:
कठिन से कठिन प्रश्नों के  उत्तर भी स्टूडेंट ढूंढ ही लेता है, यदि इच्छा प्रबल हो तो.
फिर मुक्ति के “साधन” तो “मुफ्त” में मिल रहे हैं, तीर्थंकरों की वाणी से गुरुओं के द्वारा!

विशेष आग्रह:
कृपया पोस्ट को धीमे धीमे 2-3 बार पढ़ें और फिर चिंतन करें.
उदाहरण के तौर पर :
एक कंजूस धनी के  लिए “लुटेरे” वो हैं जो उससे “दान” लेने के लिए रोज या बार बार आ जाते हैं.
(उसे किसी कारणवश दान देना भी पड़ता है फिर भी वो उसका “आनंद” ना लेकर “मातम” मनाता है).

Check Point:
कहीं हमारी स्थिति तो वैसी ही नहीं है?

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